Sunday, July 24, 2022

कविता | भैया कृष्ण! | सुभद्राकुमारी चौहान | Kavita | Bhaiya Krishna | Subhadra Kumari Chauhan



 भैया कृष्ण! भेजती हूँ मैं राखी अपनी, यह लो आज।

कई बार जिसको भेजा है सजा-सजाकर नूतन साज॥

लो आओ, भुजदण्ड उठाओ, इस राखी में बँधवाओ।

भरत-भूमि की रनभूमी को एकबार फिर दिखलाओ॥

वीर चरित्र राजपूतों का पढ़ती हूँ मैं राजस्थान।

पढ़ते-पढ़ते आँखों में छा जाता राखी का आख्यान॥

मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी जब-जब राखी भिजवाई।

रक्षा करने दौड़ पड़ा वह राखीबंद शत्रु-भाई॥

किन्तु देखना है, यह मेरी राखी क्या दिखलाती है।

क्या निस्तेज कलाई ही पर बँधकर यह रह जाती है॥

देखो भैया, भेज रही हूँ तुमको-तुमको राखी आज।

साखी राजस्थान बनाकर रख लेना राखी की लाज॥

हाथ काँपता हृदय धड़कता है मेरी भारी आवाज़।

अब भी चौंक-चौंक उठता है जलियाँ का वह गोलन्दाज़॥

यम की सूरत उन पतितों के पाप भूल जाऊँ कैसे?

अंकित आज हृदय में है फिर मन को समझाऊँ कैसे?

बहिनें कई सिसकती हैं हा! उनकी सिसक न मिट पाई।

लाज गँवाई, गाली पाई तिस पर गोली भी खाई॥

डर है कहीं न मार्शलला का फिर से पढ़ जाये घेरा॥

ऐसे समय द्रोपदी-जैसा कृष्ण! सहारा है तेरा॥

बोलो, सोच-समझकर बोलो, क्या राखी बँधवाओगे?

भीर पड़ेगी, क्या तुम रक्षा-करने दौड़े आओगे?

यदि हाँ, तो यह लो इस मेरी राखी को स्वीकार करो।

आकर भैया, बहिन ‘‘सुभद्रा’’ के कष्टों का भार हरो॥



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