Thursday, June 30, 2022

कहानी। Kahani | जादू । Jadoo | मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand


 नीला,‘‘तुमने उसे क्यों लिखा?’’

मीना,‘‘किसको?’’

‘‘उसी को!’’

‘‘मैं नहीं समझती!’’

‘‘ख़ूब समझती हो! जिस आदमी ने मेरा अपमान किया, गली-गली मेरा नाम बेचता फिरा, उसे तुम्हारा मुंह लगाना उचित है?’’

‘‘तुम ग़लत कहती हो!’’

‘‘तुमने उसे ख़त नहीं लिखा?’’

‘‘कभी नहीं.’’

‘‘तो मेरी ग़लती थी क्षमा करो. मेरी बहन न होती, तो मैं तुमसे यह सवाल भी न पूछती.’’

‘‘मैंने किसी को ख़त नहीं लिखा.’’

‘‘मुझे यह सुनकर ख़ुशी हुई.’’

‘‘तुम मुस्कराती क्यों हो?’’

‘‘मैं?’’

‘‘जी हां, आप!’’

‘‘मैं तो ज़रा भी नहीं मुस्कराई.’’

‘‘मैंने अपनी आंखों देखा.’’

‘‘अब मैं कैसे तुम्हें विश्वास दिलाऊं?’’

‘‘तुम आंखों में धूल झोंकती हो.’’

‘‘अच्छा मुस्कराई. बस, या जान लोगी?’’

‘‘तुम्हें किसी के ऊपर मुस्कराने का क्या अधिकार है?’’

‘‘तेरे पैरों पड़ती हूं नीला, मेरा गला छोड़ दे. मैं बिल्कुल नहीं मुस्कराई.’’

‘‘मैं ऐसी अनीली नहीं हूं.’’

‘‘यह मैं जानती हूं.’’

‘‘तुमने मुझे हमेशा झूठी समझा है.’’

‘‘तू आज किसका मुंह देखकर उठी है?’’

‘‘तुम्हारा.’’

‘‘तू मुझे थोड़ी संखिया क्यों नहीं दे देती?’’

‘‘हां, मैं तो हत्यारन हूं ही.’’

‘‘मैं तो नहीं कहती.’’

‘‘अब और कैसे कहोगी, क्या ढोल बजाकर? मैं हत्यारन हूं, मदमाती हूं, दीदा-दिलेर हूं, तुम सर्वगुणागरी हो, सीता हो, सावित्री हो. ख़ुश?’’

‘‘लो कहती हूं, मैंने उसे पत्र लिखा फिर तुमसे मतलब? कौन होती हो मुझसे पूछनेवाली?’’

‘‘अच्छा किया लिखा, सचमुच मेरी बेवकूफ़ी थी कि मैंने तुमसे पूछा.’’

‘‘हमारी ख़ुशी, हम जिसको चाहेंगे ख़त लिखेंगे. जिससे चाहेंगे बोलेंगे. तुम कौन होती हो रोकने वाली? तुमसे तो मैं नहीं पूछने जाती. हां, रोज़ तुम्हें पुलिन्दों पत्र लिखते देखती हूं.’’

‘‘जब तुमने शर्म ही भून खाई, तो जो चाहो करो अख़्तियार है.’’

‘‘और तुम कब से बड़ी लज्जावती बन गईं? सोचती होगी, अम्मा से कह दूंगी, यहां इस की परवाह नहीं है. मैंने उन्हें पत्र भी लिखा, उनसे पार्क में मिली भी. बातचीत भी की. जाकर अम्मा से, दादा से, सारे मुहल्ले से कह दो.’’

‘‘जो जैसा करेगा, आप भोगेगा, मैं क्यों किसी से कहने जाऊं?’’

‘‘ओ हो, बड़ी धैर्यवाली, यह क्यों नहीं कहती, अंगूर खट्टे हैं?’’

‘‘जो तुम कहो, वही ठीक है.’’

‘‘दिल में जली जाती हो.’’

‘‘मेरी बला जले.’’

‘‘रो दो ज़रा.’’

‘‘तुम ख़ुद रोओ, मेरा अंगूठा रोए.’’

‘‘उन्होंने एक रिस्टवाच भेंट दी है, दिखाऊं?’’

‘‘मुबारक़! मेरी आंखों का सनीचर दूर होगा‍.’’

‘‘मैं कहती हूं, तुम इतनी जलती क्यों हो?’’

‘‘अगर मैं तुमसे जलती हूं तो मेरी आंखें पट्टम हो जाएं.’’

‘‘तुम जितना जलोगी, मैं उतना ही जलाऊंगी.’’

‘‘मैं जलूंगी ही नहीं.’’

‘‘जल रही हो साफ़’’

‘‘कब संदेशा आएगा?’’

‘‘जल मरो.’’

‘‘पहले तेरी भांवरें देख लूं.’’

‘‘भांवरों की चाट तुम्हीं को रहती है.’’

‘‘तो क्या बिना भांवरों का ब्याह होगा?’’

‘‘ये ढकोसले तुम्हें मुबारक़. मेरे लिए प्रेम काफ़ी है.’’

‘‘तो क्या तू सचमुच...’’

‘‘मैं किसी से नहीं डरती.’’

‘‘यहां तक नौबत पहुंच गई! और तू कह रही थी, मैंने उसे पत्र नहीं लिखा!’’

‘‘क्यों अपने दिल का हाल बतलाऊं?’’

‘‘मैं तो तुझसे पूछती न थी, मगर तू आप-ही-आप बक चली.’’

‘‘तुम मुस्कराई क्यों?’’

‘‘इसलिए कि यह शैतान तुम्हारे साथ भी वही दगा करेगा, जो उसने मेरे साथ किया और फिर तुम्हारे विषय में भी वैसी ही बातें कहता फिरेगा. और फिर तुम मेरी तरह रोओगी.’’

‘‘तुमसे उन्हें प्रेम नहीं था?’’

‘‘मुझसे! मेरे पैरों पर सिर रखकर रोता और कहता कि मैं मर जाऊंगा, ज़हर खा लूंगा.’’

‘‘सच कहती हो?’’

‘‘बिल्कुल सच.’’

‘‘यह तो वह मुझसे भी कहते हैं.’’

‘‘सच?’’

‘‘तुम्हारे सिर की कसम.’’

‘‘और मैं समझ रही थी, अभी वह दाने बिखेर रहा है.’’

‘‘क्या वह सचमुच.’’

‘‘पक्का शिकारी है.’’

मीना सिर पर हाथ रखकर चिंता में डूब गई.


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