कामायनी ( निर्वेद सर्ग )

 

 वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध,

मलिन, कुछ मौन बना,

जिसके ऊपर विगत कर्म का

विष-विषाद-आवरण तना।


उल्का धारी प्रहरी से ग्रह-

तारा नभ में टहल रहे,

वसुधा पर यह होता क्या है

अणु-अणु क्यों है मचल रहे?


जीवन में जागरण सत्य है

या सुषुप्ति ही सीमा है,

आती है रह रह पुकार-सी

'यह भव-रजनी भीमा है।'


निशिचारी भीषण विचार के

पंख भर रहे सर्राटे,

सरस्वती थी चली जा रही

खींच रही-सी सन्नाटे।


अभी घायलों की सिसकी में

जाग रही थी मर्म-व्यथा,

पुर-लक्ष्मी खगरव के मिस

कुछ कह उठती थी करुण-कथा।


कुछ प्रकाश धूमिल-सा उसके

दीपों से था निकल रहा,

पवन चल रहा था रुक-रुक कर

खिन्न, भरा अवसाद रहा।


भयमय मौन निरीक्षक-सा था

सजग सतत चुपचाप खडा,

अंधकार का नील आवरण

दृश्य-जगत से रहा बडा।


मंडप के सोपान पडे थे सूने,

कोई अन्य नहीं,

स्वयं इडा उस पर बैठी थी

अग्नि-शिखा सी धधक रही।


शून्य राज-चिह्नों से मंदिर

बस समाधि-सा रहा खडा,

क्योंकि वही घायल शरीर

वह मनु का था रहा पडा।


इडा ग्लानि से भरी हुई

बस सोच रही बीती बातें,

घृणा और ममता में ऐसी

बीत चुकीं कितनी रातें।


नारी का वह हृदय हृदय में-

सुधा-सिंधु लहरें लेता,

बाडव-ज्वलन उसी में जलकर

कँचन सा जल रँग देता।


मधु-पिगल उस तरल-अग्नि में

शीतलता संसृति रचती,

क्षमा और प्रतिशोध आह रे

दोनों की माया नचती।


"उसने स्नेह किया था मुझसे

हाँ अनन्य वह रहा नहीं,

सहज लब्ध थी वह अनन्यता

पडी रह सके जहाँ कहीं।


बाधाओं का अतिक्रमण कर

जो अबाध हो दौड चले,

वही स्नेह अपराध हो उठा

जो सब सीमा तोड चले।


"हाँ अपराध, किंतु वह कितना

एक अकेले भीम बना,

जीवन के कोने से उठकर

इतना आज असीम बना


और प्रचुर उपकार सभी वह

सहृदयता की सब माया,

शून्य-शून्य था केवल उसमें

खेल रही थी छल छाया


"कितना दुखी एक परदेशी बन,

उस दिन जो आया था,

जिसके नीचे धारा नहीं थी

शून्य चतुर्दिक छाया था।


वह शासन का सूत्रधार था

नियमन का आधार बना,

अपने निर्मित नव विधान से

स्वयं दंड साकार बना।


"सागर की लहरों से उठकर

शैल-श्रृंग पर सहज चढा,

अप्रतिहत गति, संस्थानों से

रहता था जो सदा बढा।


आज पडा है वह मुमूर्ष सा

वह अतीत सब सपना था,

उसके ही सब हुए पराये

सबका ही जो अपना था।


"किंतु वही मेरा अपराधी

जिसका वह उपकारी था,

प्रकट उसी से दोष हुआ है

जो सबको गुणकारी था।


अरे सर्ग-अकुंर के दोनों

पल्लव हैं ये भले बुरे,

एक दूसरे की सीमा है

क्यों न युगल को प्यार करें?


"अपना हो या औरों का सुख

बढा कि बस दुख बना वहीं,

कौन बिंदु है रुक जाने का

यह जैसे कुछ ज्ञात नहीं।


प्राणी निज-भविष्य-चिंता में

वर्त्तमान का सुख छोडे,

दौड चला है बिखराता सा

अपने ही पथ में रोडे।"


"इसे दंड दने मैं बैठी

या करती रखवाली मैं,

यह कैसी है विकट पहेली

कितनी उलझन वाली मैं?


एक कल्पना है मीठी यह

इससे कुछ सुंदर होगा,

हाँ कि, वास्तविकता से अच्छी

सत्य इसी को वर देगा।"


चौंक उठी अपने विचार से

कुछ दूरागत-ध्वनि सुनती,

इस निस्तब्ध-निशा में कोई

चली आ रही है कहती-


"अरे बता दो मुझे दया कर

कहाँ प्रवासी है मेरा?

उसी बावले से मिलने को

डाल रही हूँ मैं फेरा।


रूठ गया था अपनेपन से

अपना सकी न उसको मैं,

वह तो मेरा अपना ही था

भला मनाती किसको मैं


यही भूल अब शूल-सदृश

हो साल रही उर में मेरे

कैसे पाऊँगी उसको मैं

कोई आकर कह दे रे"


इडा उठी, दिख पडा राजपथ

धुँधली सी छाया चलती,

वाणी में थी करूणा-वेदना

वह पुकार जैसे जलती।


शिथिल शरीर, वसन विश्रृंखल

कबरी अधिक अधीर खुली,

छिन्नपत्र मकरंद लुटी सी

ज्यों मुरझायी हुयी कली।


नव कोमल अवलंब साथ में

वय किशोर उँगली पकडे,

चला आ रहा मौन धैर्य सा

अपनी माता को पकडे।


थके हुए थे दुखी बटोही

वे दोनों ही माँ-बेटे,

खोज रहे थे भूले मनु को

जो घायल हो कर लेटे।


इडा आज कुछ द्रवित हो रही

दुखियों को देखा उसने,

पहुँची पास और फिर पूछा

"तुमको बिसराया किसने?


इस रजनी में कहाँ भटकती

जाओगी तुम बोलो तो,

बैठो आज अधिक चंचल हूँ

व्यथा-गाँठ निज खोलो तो।


जीवन की लम्बी यात्रा में

खोये भी हैं मिल जाते,

जीवन है तो कभी मिलन है

कट जाती दुख की रातें।"


श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था

मिलता है विश्राम यहीं,

चली इडा के साथ जहाँ पर

वह्नि शिखा प्रज्वलित रही।


सहसा धधकी वेदी ज्वाला

मंडप आलोकित करती,

कामायनी देख पायी कुछ

पहुँची उस तक डग भरती।


और वही मनु घायल सचमुच

तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?

आह प्राणप्रिय यह क्या?

तुम यों घुला ह्रदय,बन नीर बहा।


इडा चकित, श्रद्धा आ बैठी

वह थी मनु को सहलाती,

अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था

व्यथा भला क्यों रह जाती?


उस मूर्छित नीरवता में

कुछ हलके से स्पंदन आये।

आँखे खुलीं चार कोनों में

चार बिदु आकर छाये।


उधर कुमार देखता ऊँचे

मंदिर, मंडप, वेदी को,

यह सब क्या है नया मनोहर

कैसे ये लगते जी को?


माँ ने कहा 'अरे आ तू भी

देख पिता हैं पडे हुए,'

'पिता आ गया लो' यह

कहते उसके रोयें खडे हुए।


"माँ जल दे, कुछ प्यासे होंगे

क्या बैठी कर रही यहाँ?"

मुखर हो गया सूना मंडप

यह सजीवता रही यहाँ?"


आत्मीयता घुली उस घर में

छोटा सा परिवार बना,

छाया एक मधुर स्वर उस पर

श्रद्धा का संगीत बना।


"तुमुल कोलाहल कलह में

मैं ह्रदय की बात रे मन

विकल होकर नित्य चचंल,

खोजती जब नींद के पल,


चेतना थक-सी रही तब,

मैं मलय की बात रे मन

चिर-विषाद-विलीन मन की,

इस व्यथा के तिमिर-वन की लृ


मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,

कुसुम-विकसित प्रात रे मन

जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,

चातकी कन को तरसती,


उन्हीं जीवन-घाटियों की,

मैं सरस बरसात रे मन

पवन की प्राचीर में रुक

जला जीवन जी रहा झुक,


इस झुलसते विश्व-दिन की

मैं कुसुम-श्रृतु-रात रे मन

चिर निराशा नीरधार से,

प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,


मधुप-मुखर मरंद-मुकुलित,

मैं सजल जलजात रे मन"

उस स्वर-लहरी के अक्षर

सब संजीवन रस बने घुले।


उधर प्रभात हुआ प्राची में

मनु के मुद्रित-नयन खुले।

श्रद्धा का अवलंब मिला

फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,


मनु उठ बैठे गदगद होकर

बोले कुछ अनुराग भरे।

"श्रद्धा तू आ गयी भला तो-

पर क्या था मैं यहीं पडा'


वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका

बिखरी चारों ओर घृणा।

आँखें बंद कर लिया क्षोभ से

"दूर-दूर ले चल मुझको,


इस भयावने अधंकार में

खो दूँ कहीं न फिर तुझको।

हाथ पकड ले, चल सकता हूँ-

हाँ कि यही अवलंब मिले,


वह तू कौन? परे हट, श्रद्धे आ कि

हृदय का कुसुम खिले।"

श्रद्धा नीरव सिर सहलाती

आँखों में विश्वास भरे,


मानो कहती "तुम मेरे हो

अब क्यों कोई वृथा डरे?"

जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से

लगे बहुत धीरे कहने,


"ले चल इस छाया के बाहर

मुझको दे न यहाँ रहने।

मुक्त नील नभ के नीचे

या कहीं गुहा में रह लेंगे,


अरे झेलता ही आया हूँ-

जो आवेगा सह लेंगे"

"ठहरो कुछ तो बल आने दो

लिवा चलूँगी तुरंत तुम्हें,


इतने क्षण तक" श्रद्धा बोली-

"रहने देंगी क्या न हमें?"

इडा संकुचित उधर खडी थी

यह अधिकार न छीन सकी,


श्रद्धा अविचल, मनु अब बोले

उनकी वाणी नहीं रुकी।

"जब जीवन में साध भरी थी

उच्छृंखल अनुरोध भरा,


अभिलाषायें भरी हृदय में

अपनेपन का बोध भरा।

मैं था, सुंदर कुसुमों की वह

सघन सुनहली छाया थी,


मलयानिल की लहर उठ रही

उल्लासों की माया थी।

उषा अरुण प्याला भर लाती

सुरभित छाया के नीचे


मेरा यौवन पीता सुख से

अलसाई आँखे मींचे।

ले मकरंद नया चू पडती

शरद-प्रात की शेफाली,


बिखराती सुख ही, संध्या की

सुंदर अलकें घुँघराली।

सहसा अधंकार की आँधी

उठी क्षितिज से वेग भरी,


हलचल से विक्षुब्द्ध विश्व-थी

उद्वेलित मानस लहरी।

व्यथित हृदय उस नीले नभ में

छाया पथ-सा खुला तभी,


अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति

कर दी तुमने देवि जभी।

दिव्य तुम्हारी अमर अमिट

छवि लगी खेलने रंग-रली,


नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय-

निकष पर खिंची भली।

अरुणाचल मन मंदिर की वह

मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा,


गी सिखाने स्नेह-मयी सी

सुंदरता की मृदु महिमा।

उस दिन तो हम जान सके थे

सुंदर किसको हैं कहते


तब पहचान सके, किसके हित

प्राणी यह दुख-सुख सहते।

जीवन कहता यौवन से

"कुछ देखा तूने मतवाले"


यौवन कहता साँस लिये

चल कुछ अपना संबल पाले"

हृदय बन रहा था सीपी सा

तुम स्वाती की बूँद बनी,


मानस-शतदल झूम उठा

जब तुम उसमें मकरंद बनीं।

तुमने इस सूखे पतझड में

भर दी हरियाली कितनी,


मैंने समझा मादकता है

तृप्ति बन गयी वह इतनी

विश्व, कि जिसमें दुख की

आँधी पीडा की लहरी उठती,


जिसमें जीवन मरण बना था

बुदबुद की माया नचती।

वही शांत उज्जवल मंगल सा

दिखता था विश्वास भरा,


वर्षा के कदंब कानन सा

सृष्टि-विभव हो उठा हरा।

भगवती वह पावन मधु-धारा

देख अमृत भी ललचाये,


वही, रम्य सौंदर्य्य-शैल से

जिसमें जीवन धुल जाये

संध्या अब ले जाती मुझसे

ताराओं की अकथ कथा,


नींद सहज ही ले लेती थी

सारे श्रमकी विकल व्यथा।

सकल कुतूहल और कल्पना

उन चरणों से उलझ पडी,


कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से

जीवन की वह धन्य घडी।

स्मिति मधुराका थी, शवासों से

पारिजात कानन खिलता,


गति मरंद-मथंर मलयज-सी

स्वर में वेणु कहाँ मिलता

श्वास-पवन पर चढ कर मेरे

दूरागत वंशी-रत्न-सी,


गूँज उठीं तुम, विश्व कुहर में

दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी

जीवन-जलनिधि के तल से

जो मुक्ता थे वे निकल पडे,


जग-मंगल-संगीत तुम्हारा

गाते मेरे रोम खडे।

आशा की आलोक-किरन से

कुछ मानस से ले मेरे,


लघु जलधर का सृजन हुआ था

जिसको शशिलेखा घेरे-

उस पर बिजली की माला-सी

झूम पडी तुम प्रभा भरी,


और जलद वह रिमझिम

बरसा मन-वनस्थली हुई हरी

तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया

विश्व खेल है खेल चलो,


तुमने मिलकर मुझे बताया

सबसे करते मेल चलो।

यह भी अपनी बिजली के से

विभ्रम से संकेत किया,


अपना मन है जिसको चाहा

तब इसको दे दान दिया।

तुम अज्रस वर्षा सुहाग की

और स्नेह की मधु-रजनी,


विर अतृप्ति जीवन यदि था

तो तुम उसमें संतोष बनी।

कितना है उपकार तुम्हारा

आशिररात मेरा प्रणय हुआ


आकितना आभारी हूँ, इतना

संवेदनमय हृदय हुआ।

किंतु अधम मैं समझ न पाया

उस मंगल की माया को,


और आज भी पकड रहा हूँ

हर्ष शोक की छाया को,

मेरा सब कुछ क्रोध मोह के

उपादान से गठित हुआ,


ऐसा ही अनुभव होता है

किरनों ने अब तक न छुआ।

शापित-सा मैं जीवन का यह

ले कंकाल भटकता हूँ,


उसी खोखलेपन में जैसे

कुछ खोजता अटकता हूँ।

अंध-तमस है, किंतु प्रकृति का

आकर्षण है खींच रहा,


सब पर, हाँ अपने पर भी

मैं झुँझलाता हूँ खीझ रहा।

नहीं पा सका हूँ मैं जैसे

जो तुम देना चाह रही,


क्षुद्र पात्र तुम उसमें कितनी

मधु-धारा हो ढाल रही।

सब बाहर होता जाता है

स्वगत उसे मैं कर न सका,


बुद्धि-तर्क के छिद्र हुए थे

हृदय हमारा भर न सका।

यह कुमार-मेरे जीवन का

उच्च अंश, कल्याण-कला


कितना बडा प्रलोभन मेरा

हृदय स्नेह बन जहाँ ढला।

सुखी रहें, सब सुखी रहें बस

छोडो मुझ अपराधी को"


श्रद्धा देख रही चुप मनु के

भीतर उठती आँधी को।

दिन बीता रजनी भी आयी

तंद्रा निद्रा संग लिये,


इडा कुमार समीप पडी थी

मन की दबी उमंग लिये।

श्रद्धा भी कुछ खिन्न थकी सी

हाथों को उपधान किये,


पडी सोचती मन ही मन कुछ,

मनु चुप सब अभिशाप पिये-

सोच रहे थे, "जीवन सुख है?

ना, यह विकट पहेली है,


भाग अरे मनु इंद्रजाल से

कितनी व्यथा न झेली है?

यह प्रभात की स्वर्ण किरन सी

झिलमिल चंचल सी छाया,


श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे

यह मुख या कलुषित काया।

और शत्रु सब, ये कृतघ्न फिर

इनका क्या विश्वास करूँ,


प्रतिहिंसा प्रतिशोध दबा कर

मन ही मन चुपचाप मरूँ।

श्रद्धा के रहते यह संभव

नहीं कि कुछ कर पाऊँगा


तो फिर शांति मिलेगी मुझको

जहाँ खोजता जाऊँगा।"

जगे सभी जब नव प्रभात में

देखें तो मनु वहाँ नहीं,


'पिता कहाँ' कह खोज रहा था

यह कुमार अब शांत नहीं।

इडा आज अपने को सबसे

अपराधी है समझ रही,


कामायनी मौन बैठी सी

अपने में ही उलझ रही।


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